मर्यादापुरुषोत्तम राम की ऐतिहासिकता – भाग-1
इसके लेखक आचार्य किशोर कुणाल, आई.पी.एस. (सेवानिवृत्त) हैं. लेखक परिचय के लिए यहाँ क्लिक करें।
कुछ इतिहासकारों ने जनता में यह भ्रम फैलाने की चेष्टा की है कि इस देश में भगवान श्रीराम की कथा और पूजा रामानन्दाचार्य एवं गोस्वामी तुलसीदास के पूर्व लोकप्रिय नहीं थी। एक इतिहासकार तो अपने विद्यार्थियों एवं सहयोगियों को वर्षों से यह बताते रहे हैं कि रामगुप्त (पाँचवी शती र्इ.) के पूर्व इस देश में राम-नाम ही नहीं था। यह कथन सर्वथा भ्रामक है।
इसी प्रकार लक्ष्मीधर के ‘कृत्यकल्पतरु में राम-सम्बन्धी पूजा के अनुल्लेख के कारण कुछ विद्वान् यह मानते रहे हैं कि रामानन्दाचार्य के पूर्व कर्मकाण्ड की परम्परा में राम का अस्तित्व नहीं रहा है। किन्तु यह तथ्य भ्रामक है। भारत की मानसिकता उन्हें इससे बहुत पूर्व से ही मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में ही नहीं बलिक विष्णु के सातवें अवतार के रूप में पूजती रही है। अब हम जगदगुरु रामानन्दाचार्य (13वीं शती) के काल से पूर्व के संस्कृत एवं हिन्दी वाङ्मय में राम के देवत्व का प्रतिपादन करेंगे।
राम-नाम भारतवर्ष की नस-नस में सदियों से समाया हुआ है। संस्कृत एवं सभी भारतीय भाषाओं के सभी प्रमुख कवियों ने भगवान श्रीराम के प्रति कुछ-न-कुछ श्रद्धा-सुमन अवश्य समर्पित किया है। रामायण के पात्रों का उल्लेख उनकी रचनाओं में किसी-न-किसी प्रकार अवश्य होता रहा है। फिर भी हमारे संशयवादी इतिहासकार लोगों के बीच कुछ-न-कुछ भ्रानित अवश्य फैलाने की चेष्टा करते हैं। कभी वे लिखते हैं कि पाणिनि के व्याकरण-ग्रन्थ में राम का उल्लेख न होने के कारण रामायण पाणिनि के परवर्ती काल की रचना है। ये इतिहासकार इतनी बात क्यों नहीं समझते कि पाणिनि कोर्इ धर्मकथा नहीं लिख रहे थे, बलिक व्याकरण-ग्रन्थ लिख रहे थे, जो सूत्र-शैली में था, जिसमें कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कहनी थी। ये सूत्रकार अर्ध-मात्रा के लाघव को (कम करने को) पुत्रोत्सव जैसा आनन्द मानते हैं। फिर भी अष्टाध्यायी के सूत्र 6.1.157 ‘पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम् के गणपाठ में ‘किष्किन्धा शब्द का उल्लेख हुआ है।
जब किष्किन्धा है, तब क्या अयोध्या नहीं रही होगी? बह्वादिभ्यश्च 4।1।96 में ‘सुमित्रा शब्द का उल्लेख हुआ है। इस सूत्र के अनुसार बह्वादि गण में पठित शब्दों से अपत्य (सन्तान) के अर्थ में इ´ वाचक है, क्योंकि लक्ष्मण रामकथा में सुमित्रा के पुत्र हैं। इस ‘सौमित्रि शब्द का उल्लेख पाणिनि ने ‘गहादिभ्यष्च 4।2।138 सूत्र के गणपाठ में भी किया है, जिससे सौमित्रेय शब्द की सिद्धि होती है। इसी गणपाठ में ‘वाल्मीकि शब्द भी है। इस प्रकार पाणिनि सूत्र ”नखमुखात संज्ञायाम से शूर्पणखा में णत्व हुआ है।
ऐसे संशयग्रस्त इतिहासकारों को, जिन्हें किसी ग्रन्थ में किसी के नाम का उल्लेख नहीं मिलने पर तुरत यह निर्णय करने की आदत है कि उसका अस्तित्व ही उस समय तक नहीं था, हमारा सुझाव है कि वे एक बार बाणभट्ट को पढ़ लें। सातवीं शताब्दी में मगध कविसम्राट् बाणभट्ट ने हर्षचरित के मंगलाचरण में व्यास, कालिदास, भास, प्रवरसेन आदि कवियों की स्तुति की है; किन्तु वाल्मीकि का स्मरण नहीं किया है, तो क्या वाल्मीकि बाण के पूर्ववत्र्ती नहीं थे या वाणभट्ट वाल्मीकि से अनभिज्ञ थे? बाणभट्ट ने तो अपनी दूसरी रचना ‘कादम्बरी में अगस्त्याश्रम के वर्णन में रामकथा से पूर्ण अभिज्ञता प्रदर्शित की है- ‘यत्र च दशरथवचनमनुपालयन्नुत्सृष्टराज्यो दशवदन-लक्ष्मी-विभ्रमविरामो रामो……..।
समस्त भारतीय वाङ्मय में रामकथा के प्रसंगों की भरमार है, इतनी प्राचीन, व्यापक एवं अविचिछन्न परम्परा विश्व-इतिहास में बहुत कम कथाओं को मिली है, भारत ही क्यों, सुदूर दक्षिण पूर्वी देशों में भी राम-कथा की विकास-यात्रा सदियों पुरानी है, गोस्वामी तुलसीदासजी से एक हजार वर्ष पूर्व। उन सभी देशों में भी विविध रामायणों की रचना हुर्इ और रामकथा के विभिन्न स्वरूपों का विकास हुआ।
महाराज पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदायी (12 वीं शदी) का काव्य ‘पृथ्वीराज रासो यधपि एक प्रषिस्त काव्य है साथ ही कवि को हिन्दी साहित्य की परम्परा में वीरगाथा कालीन कवियों के अन्तर्गत रखा गया है, किन्तु इस प्रशस्ति काव्य में भी प्रसंगवश अनेक भक्तिपरक कविताओं का स्फुरण हुआ है। कवि ने सरस्वती, गंगा, यमुना, गणेश, इन्द्र, हनुमान आदि देवताओं के अतिरिक्त भगवान विष्णु के 24 लीलावतारों तथा दशावतारों का भी वर्णन स्तुति-शैली में किया है। दशावतार-वर्णन में यहाँ भी सातवें अवतार के रूप में दशरथ के पुत्र राम का उल्लेख आया है। दूसरे समय (रासो में अध्याय या परिच्छेद के लिए व्यवâत शब्द) के आरम्भ में ”अथ दसम लिख्यते इस वाक्य के द्वारा दशावतार का प्रसंग प्रारम्भ कर सर्वप्रथम विष्णु की स्तुति करते हैं फिर दशावतारों का नाम स्मरण करते हुए कहते हैं-
मछछ कछछ वाराह प्रनमिमय।
नारसिंघ वामन फरसमिमय।।
सुअ दसरथ्थ हलद्धर नमिमय।
बुद्ध कलंक नमो दह नमिमय।।
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