मर्यादापुरुषोत्तम राम की ऐतिहासिकता – भाग-2
इसके लेखक आचार्य किशोर कुणाल, आई.पी.एस. (सेवानिवृत्त) हैं. लेखक परिचय के लिए यहाँ क्लिक करें।
धर्मशास्त्र की परम्परा में ‘अगस्त्य-संहिता का उल्लेख परवर्ती निबन्धकारों ने ‘रामनवमी व्रत के सन्दर्भ में किया है। हेमाद्रि (13वीं शती), माधवाचार्य (14वीं शती), कमलाकर भट्ट(16वीं शती) देवनाथ ठाकुर (1409 ई.) आदि निबन्धकारों ने श्रीराम की पूजा-आराधना विषयक ग्रन्थ अगस्त्य-संहिता की पंक्तियों का उल्लेख किया है। रामनवमी व्रत की कथा भी ‘अगस्त्य संहिता से उद्धृत उपलब्ध होती है। इस प्रकार 13वीं शती से पूर्व श्रीराम कर्मकाण्ड की परम्परा में भी प्रतिष्ठित हो चुके हैं।
नरसिंह पुराण धर्मशास्त्र की परम्परा में प्रसिद्ध रहा है। 1260 र्इ. के आसपास श्रीदत्त उपाध्याय ने ‘आचारादर्श में इससे प्रमाण प्रस्तुत किया है। 14वीं शती में ज्योतिरीश्वर ने तो इसे महापुराण माना है। इसमें भी रामावतार का प्रसंग है जहाँ ब्रह्मा द्वारा श्रीराम की स्तुति उनके देवत्व का प्रतिपादक है-
नम: क्षीराबिधवासाय नागपर्यङ्कशायिने।
नम: श्रीकरसंस्पृष्टदिव्यपादाय विष्णवे।। (45।15)
अल्वेरुनी ने 1030 र्इ0 में न केवल विष्णुपुराण का उल्लेख किया है; बलिक इसे उद्धरण भी लिया है अत: विष्णुपुराण की अनितम काल सीमा 10 वीं शती है। इस पुराण में यधपि कृष्णावतार से सम्बद्ध कथाएँ अधिक हैं; किन्तु रामावतार के प्रसंग में उनके देवत्व का उल्लेख किया गया है-
तस्यापि भगवानब्जनाभो जगत: सिथत्यर्थमात्मांशेन रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्द्धा पुत्रत्वमायासीत। (अंश 4 अध्याय 4) अर्थात दशरथ के भी भगवान विष्णु जगत् की स्थिति के लिए अपने अंशों से राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न इन चार रूपों में पुत्र हुए।
108 उपनिषदों में रामतापिनीयोपनिषद् राम-पूजन की परम्परा में प्रसिद्ध आगम शास्त्रीय ग्रन्थ है। इस उपनिषद का उल्लेख मुक्तिकोपनिषद में किया गया है, जहाँ इसे अथर्ववेद से सम्बद्ध उपनिषद् माना गया है।
पद्मपुराण में राम के देवत्व का पूर्ण विकास उपलब्ध होता है। इसके पाताल-खण्ड के पाँचवें अध्याय में सभी देवों द्वारा राम की स्तुति की गयी है जिसमें उन्हें अनादि आध, नर रूपधारी और शिव द्वारा पूजित माना गया है-
अनादिराधो नररूपधारी हारी किरीटी मकरध्वजाभ:
जयं करोतु प्रसभं हतारि: स्मरारिसंसेवितपादपद्मः।।
उत्तरखण्ड के अध्याय 75 में रामोपासना की आगम-पद्धति के अनुरूप रामरक्षास्तोत्र उपलब्ध है, जिसके ऋषि विश्वामित्र हैं। इसमें विनियोग एवं ध्यान के साथ कुल 9 मन्त्र हैं। इसी खण्ड के 254वें अध्याय में नामानुकीर्तन की महिमा बतलाकर ‘अष्टोत्तरशतनाम का उल्लेख हुआ है जिसमें उनके अलौकिक स्वरूप का उल्लेख किया गया है-
सर्वयज्ञाधिपो यज्ञो जरामरणवर्जित:।
परमात्मा परब्रह्रा सचिचदानन्दविग्रह:।।
परं ज्योति: परं धाम पराकाष: परात्पर:।
परेष: पारग: पार: सर्वभूतात्मक: षिव:।।
महाकवि माघ कृत शिशुपालवध के प्रथम अध्याय में नारद श्रीकृष्ण को उनके देवत्व का स्मरण कराते हुए कहते हैं कि आप साक्षात् विष्णु स्वरूप हैं; आपने बार-बार अवतार लेकर पृथ्वी पर आये संकट को दूर किया है। इसी क्रम में रामावतार का वर्णन कर रावण के संहार की बात कही गयी है-
स्मरत्यदो दाशरथिर्भवन्भवा-
नमुं वनान्ताद्वनितापहारिणम।
पयोधिमाबद्धचलज्जलाविलं
विलंघ्य लंकां निकषा हनिष्यति।।
अर्थात क्या आप स्मरण करते हैं कि दशरथ पुत्र होते हुए आपने वन से सीता का अपहरण करनेवाले इस रावण को चचंल जल वाले एवं क्षुब्ध समुद्र को पुल द्वारा पारकर लंका के समीप मारा था।
महाकवि भवभूति ने ‘महावीरचरित के प्रणयन की प्रेरणा के सम्बन्ध में कहा है कि आदिकवि वाल्मीकि ने रघुपति के जिस ‘पावन चरित का वर्णन किया उसका ‘भक्त होने के कारण मेरी वाणी इसमें अनुरक्त हुर्इ-
प्राचेतसो मुनिवृषा प्रथम: कवीनां
यत्पावनं रघुपते: प्रणिनाय वृत्तम।
भक्तस्य तस्य समरंसत मेपि वाच-
स्तत्सुप्रसन्नमनस: कृतिनो भजन्ताम्।।
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