मर्यादापुरुषोत्तम राम की ऐतिहासिकता – भाग-3
इसके लेखक आचार्य किशोर कुणाल, आई.पी.एस. (सेवानिवृत्त) हैं. लेखक परिचय के लिए यहाँ क्लिक करें।
महाकवि कालिदास ने रघुवंश के दशम सर्ग में रामावतार की भूमिका में देवताओं के द्वारा विष्णु की स्तुति का विस्तृत वर्णन कर श्रीराम के देवत्व का समर्थन किया है।
वैखानस आगम, गुप्तकाल की मूर्तिकला का सिद्धान्त ग्रन्थ है। इन दोनों ग्रन्थों में ‘राघवराम की 120 अंगुल मूर्ति बनाने का विधान किया गया है। राम की बाहु की ऊँचार्इ के बराबर सीता की मूर्ति दक्षिण पार्श्व में तथा राम के कान के बराबर ऊँचार्इ की लक्ष्मण की मूर्ति बनाने का विधान किया गया है। राम के दक्षिण पार्श्व में कुछ हटकर हृदय, नाभि अथवा जंघा के बराबर ऊँचार्इ की हनुमान् की मूर्ति बनाने का उल्लेख किया गया है। यह गुप्तकाल में राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की पूजा का प्रमाण है।
प्रवरसेन ने ‘सेतुबन्ध महाकाव्य में श्रीराम को विष्णु माना है। नवम आश्वासक में राम के क्रोध से दग्ध होकर समुद्र तो उनके चरणों में आँधी में गिरे वृक्ष के समान गिर जाता है साथ ही त्रिपथगा गंगा भी जिस चरण से निकली है उसी ‘हरि-चरण पर गिर पड़ती है। मूल प्राकृत श्लोक की संस्कृत छाया इस प्रकार है-
पश्चाच्च त्रस्तहृदया यत एव निर्गता विपर्यस्तमुखी।
हरिचरणे तत्रैव कमलाताम्रे त्रिपथगापि निपतिता।।
महाकवि कालिदास ने तो ‘रघुवंश महाकाव्य का सम्पूर्ण दशम सर्ग श्रीराम के देवत्व की अवधारणा पर ही उपन्यस्त किया है जहाँ उन्होंने विष्णु की स्तुति परम ब्रह्रा के रूप में करके रामावतार के लिए उनसे प्रार्थना की है।
नाटककार भास ने अभिषेक नाटक के मंगलाचरण में देवता के रूप में राम की वन्दना करते हुए सभी लोगों की रक्षा करने की प्रार्थना की है।
यो गाधिपुत्रमखविघ्नकराभिहन्ता
युद्धे विराधखरदूषणवीर्यहन्ता
दर्पोद्धतोल्वणकबन्धकपीन्द्रहन्ता।
पायात् स वो निशिचरेन्द्रकुलाभिहन्ता।।
नि:सन्देह ‘अभिषेक के श्रीराम केवल मर्यादापुरुषोत्तम और धीरोदात्त नायक ही नहीं हैं बल्कि अलौकिक देवस्वरूप हैं, जिनकी स्तुति मंगलाचरण में की गयी है।
इसी अभिषेक नाटक में श्रीराम के बाण से समुद्र के विक्षुब्ध होने पर स्वयं वरुणदेव उपसिथत होकर श्रीराम की स्तुति करते हैं-
मानुषं रूपमास्थाय चक्रशार्ङ्गगदाधर:
स्वयं कारणभूत: सन कार्यार्थी समुपागत:।।
नमो भगवते त्रैलोक्यकारणाय नारायणाय।।
कोटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र में विनयाधिकारिक प्रथमाधिकरण के ‘इन्द्रियजय के अरिषड्वर्गत्याग प्रसंग में कहा है कि ”मानाद् रावण: परदारानप्रयच्छन् अर्थात अभिमान से रावण दूसरे की पत्नी का अपहरण कर विनष्ट हुआ। अत: किसी राजा को परदारापहरण अर्थात् दूसरे राजा की पत्नी का अपहरण नहीं करना चाहिए। इससे वह ‘रावण के समान विनष्ट हो जाता है। यहाँ स्पष्ट रूप से रामायण की कथा का संकेत किया गया है।
जिन इतिहासकारों ने रामकथा की प्राचीनता में इस आधार पर सन्देह व्यक्त किया है कि रामायण का पुरातत्त्वीय साक्ष्य कमजोर है, उन इतिहासकारों की जानकारी के लिए हम विदेशों में पाये जानेवाले रामायण-विषयक पुरातत्त्वीय साक्ष्यों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
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