मर्यादापुरुषोत्तम राम की ऐतिहासिकता – भाग-4
इसके लेखक आचार्य किशोर कुणाल, आई.पी.एस. (सेवानिवृत्त) हैं. लेखक परिचय के लिए यहाँ क्लिक करें।
सातवाहन राजा वसिष्ठीपुत्र पुलुमावी (131-49 र्इ.) के नासिक-अभिलेख में राम- केशव, अर्जुन, भीम, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति, राम, अम्बरीष का उल्लेख किया गया है
…………….राम। (पंक्ति संख्या 7)
केसवाजुन-भीमसेन-तुल-परकमस छणधनुसव समाजकारकस नाभाग नहुस- जनमेजय- सकर-य (या) ति-रामावरीस-समतेजस…….। (पंक्ति संख्या 8)
वर्तमान वियतनाम के तृतीय शताब्दीय संस्कृत-अभिलेख को, जिसमें वाल्मीकि-रामायण की अभिव्यक्त- ‘लोकस्यास्य गतागतिम् (इस लोक के प्राणियों का परलोक में जाना और वहाँ से आना होता रहता है।) पायी जाती है। यह अभिलेख संस्कृत में है। जी हाँ, वियतनाम में आज से सत्रह सौ साल पहले का अभिलेख पाया गया है, जो संस्कृत-भाषा में है। संस्कृत केवल भारत देश की ही राष्ट्रीय सम्पर्क-भाषा नहीं थी, बलिक देश के बाहर भी यह सम्पर्क-भाषा के रूप में मान्य थी। यह अभिलेख राजा श्रीमार के वंशजों ने उत्कीर्ण कराया था। यधपि इस लेख में कोर्इ तिथि उलिलखित नहीं है, तथापि पुरातत्त्ववेत्ताओं ने पुरालिपि-शास्त्र के आधार पर यह तिथि (तीसरी शताब्दी) निर्धारित की है।
किन्तु, जिन संशयग्रस्त इतिहासकारों को इतने से भी सन्तोष नहीं होगा, उनके लिए प्रस्तुत है वर्तमान वियतनाम का ही सातवीं सदी का दूसरा अभिलेख जिसमें महर्षि वाल्मीकि के नाम का उल्लेख है। यह अभिलेख वियतनाम के वत्र-क्यू (प्राचीन चम्पानगरी) स्थान पर पाया गया है, और संस्कृत-भाषा में है। यह चम्पा के राजा प्रकाशधर्म का अभिलेख है, जिसने सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वहाँ राज्य किया था और वाल्मीकि-मन्दिर की स्थापना की थी। इस अभिलेख की कुछ पंकितयाँ यहाँ उद्धृत हैं-
यस्य शोकात् समुत्पत्रं श्लोकं ब्रह्माभिपूजति।
विष्णो: पुंस: पुराणस्य मानुषस्यात्मरूपिण:।।
………..ऋतं कृत्यं कृतं येनाभिषेचनम।
कवेराधस्य महर्षेर्वाल्मीकेश्श्रु……. रिह।।
इस लेख में वाल्मीकि को महर्षि, आदिकवि और पुराणपुरुष विष्णु को मनुष्यरूपधारी बताया गया है तथा क्रौंच के वध से उत्पन्न शोक के कारण श्लोक के प्रस्फुटन का उल्लेख है। यह घटना वाल्मीकिरामायण के बालकाण्ड के द्वितीय सर्ग में विशद रूप से वर्णित है।
प्राचीन चम्पा के इतिहास से ज्ञात होता है कि वर्तमान वियतनाम में रामकथा प्राचीन काल में लोकप्रिय थी। वियतनामी भाषा में दशरथ और दशानन काफी प्रचलित शब्द रहे हैं।
कम्बोडिया (प्राचीन कम्बुज) में रामायण का उल्लेख छठी शती के शिलालेख में मिलता है। यह शिलालेख भी संस्कृत में है। यह शिलालेख एक ब्राह्राण सोमशर्मा द्वारा सन् 598 र्इ. में उत्कीर्ण कराया गया था तथा ‘वल कन्तेल स्थान से प्राप्त हुआ है। यह सोमशर्मा सामवेद का मूर्द्धन्य विद्वान् था तथा राजकुमार वीरवर्मा की पुत्री का पति था। इस अभिलेख के अनुसार सोमशर्मा ने प्रतिदिन त्रिभुवनेश्वर-मनिदर में रामायण, पुराण एवं महाभारत के अनवरत पाठ के लिए अतिशय (अतिपुष्कल) दक्षिणा की व्यवस्था की। इससे पता चलता है कि छठी-सातवीं शती में कम्बोडिया जैसे सुदूर देश में रामायण, महाभारत एवं पुराण का धार्मिक पारायण प्रतिदिन होता था।
अतिष्ठपन् महापूजामतिपुष्कलदक्षिणाम्।
रामायणपुराणाभ्याम अशेषं भारतं ददत्।। (Val Kantal K 359)
ग्यारहवीं सदी के दूसरे अभिलेख ‘प्रासात संख: से भी ज्ञात होता कि रामायण, महाभारत एवं पुराण के नियमित पारायण की परम्परा कम्बोडिया में थी। फिर भी रोमिला थापर कहती हैं कि रामायण कभी धर्मग्रन्थ के रूप में प्रचलित ही नहीं थी। क्यों उन्होंने इन शिलालेखों को नहीं पढ़ा है? काश, उन्होंने एक बार भी वाल्मीकि-रामायण का ही पारायण किया होता, तो ऐसी भ्रान्ति न उन्हें होती और न वह इसे दूसरों के बीच फैलतीं।
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