बिहार की गौरवमयी वैष्णव धारा – भाग-1
इसके लेखक पं. भवनाथ झा हैं. लेखक परिचय के लिए यहाँ क्लिक करें।
बिहार राजनीति की दृष्टि से इतना गौरवशाली रहा है कि लगभग एक सहस्राब्दी तक इसे भारत के अधिकांश भू-भाग की राजधानी रहने का गौरव प्राप्त है। धार्मिक दृष्टि से यह प्रदेश भगवान् बुद्ध का कर्मक्षेत्र रहा है; भगवान् महावीर ने यहाँ जन्म लिया है। इसके साथ ही सनातन धर्म की दृष्टि से भी इसकी गौरवशाली परम्परा महत्त्वपूर्ण रही है। पुराणों में इसका यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है कि भगवान् विष्णु का नृसिंहावतार, और वामनावतार यहीं हुआ था। यह महामुनि शुक्राचार्य, विश्वामित्र, च्यवन, गौतम आदि की तपःस्थली रही है। इस भूमि पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने विश्वामित्र से शिक्षा पायी; ताड़कासुर का वध किया। इसी भूमि के महर्षि ऋष्यशृंग की देखरेख में किए गये यज्ञ के पश्चात् श्रीराम इस धराधाम पर अवतरित हुए।
पौराणिक आख्यानों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यहाँ वैष्णव-धारा प्रवाहित होती रही है। गण्डकी नदी ने भगवान् विष्णु से वरदान पाकर उन्हें अपने गर्भ में धारण किया है। यहाँ नृसिंह तीर्थ है, जहाँ नृसिंहावतार हुआ था। यहाँ मन्दार क्षेत्र है जहाँ मन्दार वृक्ष के नीचे भगवान् विष्णु क्रीडा करते हैं।
इस आलेख में पौराणिक परिप्रेक्ष्य में वैष्णव-धारा के सन्दर्भ में बिहार की गरिमा निरूपित की गयी है। साथ ही वर्तमान में उपलब्ध कुछ वैष्णव मन्दिरों और मूर्तियों के विषय में सूचना दी गयी है। हमें जितनी जानकारी मिली उसे हमने यहाँ संकलित किया। इसके अतिरिक्त भी अनेक वैष्णव मन्दिर है, जिनपर बाद मे प्रकाश डालेंगे।
बिहार में बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाय की गौरवमयी परम्परा रही है और इन सभी सम्प्रदायों के बीच समन्वयात्मक दृष्टि यहाँ मुखर रही है। इन परम्पराओं से केवल एक वैष्णव परम्परा को हमने यहाँ विषय बनाया है।
मन्दार-क्षेत्र
वाराह-पुराण के 143वें अध्याय में मन्दार माहात्म्य का उल्लेख हुआ है। यह बिहार के मन्दारगिरि से अभिन्न है। इस पर्वत का स्थान निरूपण करते हुए वाराह-पुराण में कहा गया है-
जाह्नव्याः दक्षिणे कूले विन्ध्यपृष्ठसमाश्रितम्।
मन्दारेति विख्यातं सर्वभागवतप्रियम्।।
अर्थात् गंगा नदी के दक्षिण तट पर विन्ध्यपर्वत के पृष्ठ भाग में मन्दार है, जो वैष्णवों का प्रिय क्षेत्र है। वर्तमान में यह भागलपुर जिला की पहाड़ी मन्दार के नाम से विख्यात है। इस कथा के प्रारम्भ में ही त्रेतायुग में भगवान् श्रीराम द्वारा विष्णु की स्थापना का उल्लेख किया गया है-
तत्र त्रेतायुगे भूमे रामो नाम महद्द्युतिः।
भविष्यति न सन्देहः सच मां स्थापयिष्यति।।
इसकी महिमा का बखान करते हुए वाराह-पुराण में देवी पृथ्वी से भगवान् विष्णु कहते हैं कि स्वर्ग में जब मन्दार के फूल खिलते हैं तब वहाँ मैं क्रीड़ा करता हूँ और इसे अपने हृदय पर धारण करता हूँ किन्तु जब मैं इस पर्वत पर वास करने आया तब उस पुष्प के लिए मैं बेचैन रहने लगा। तब मेरे प्रभाव से इस पर्वत पर ग्यारह कुण्ड बन गये और मन्दार का एक बड़ा-सा वृक्ष भी उग आया। द्वादशी और चतुर्दशी तिथि को जब मन्दार के वृक्ष पर फूल लगते हैं तब वहाँ मघ्याह्न के समय मैं सशरीर उपस्थित हो जाता हूँ। यहीं निकट में मन्दार-कुण्ड है, जहाँ मेरा निवास है।
वाराह-पुराण के इस प्रसंग में आगे अन्य दस कुण्डों का भी विवरण है। मन्दार पर्वत के उत्तर में ‘प्रापण’ नाम का एक पर्वत है, जहाँ से तीन झरने दक्षिण की ओर निकलते हैं। इनसे एक कुण्ड बना है जो स्नान-कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। मन्दार पर्वत के दक्षिण भाग में ‘मोदन’ नाम की एक चोटी है यहाँ मृत्यु प्राप्त कर प्राणी विष्णु लोक जाते हैं। इसके पूर्वोत्तर में एक गुफा है, जहाँ से वैकुण्ठ का मार्ग प्रशस्त होता है। इस गुफा के पास एक झरना है जिसके जल का रंग हल्दी की तरह पीला होता है। इस ‘मोदन’ चोटी से दक्षिण-पूर्व में एक विशाल झील है, इसमें स्नान करने से विष्णु लोक की प्राप्ति होती है। मन्दार पर्वत के पूर्व में एक गुफा है वहाँ मूसल की तरह धार वाला एक झरना गिरता है। इस गुफा से दक्षिण में दूसरी गुफा है जहाँ विन्ध्य पर्वत से पाँच धाराएँ निकलती हैं, जिनकी धार मूसल के समान है।
इस प्रकार इस अध्याय में मन्दार पर्वत एवं उसके आसपास की पहाडि़यों की महिमा का वर्णन किया गया है।
शालग्राम क्षेत्र
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